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Wednesday, September 15, 2010

जाने कितने कैदखाने

कविता


राजेश त्रिपाठी

हमने अपने गिर्द

खड़े कर रखे हैं

जाने कितने कैदखाने

हम बंदी हैं

अपने विचारों के

आचारों के

न जाने कितने-कितने

सामाजिक विकारों के।

हमने खींच रखे हैं

कुछ तयशुदा दायरे

अपने गिर्द,

उनमें भटकते हम

भूल बैठे हैं कि

इनके पार

है अपार संसार।

उसकी नयनाभिराम सृष्टि,

उसके रंग, उसकी रौनक।

हम बस लगा कर

एक वाद का चश्मा

बस उसी से दुनिया

रहे हैं देख।

वाद का यह चश्मा

सिर्फ खास किस्म की

दुनिया लाता है सामने।

उसेक परे हम

कुछ नहीं देख पाते

या कहें देखना नहीं चाहते।

इस चश्मे का

अपना एक नजरिया है

अपना सिद्धांत है

यह क्रांति को ही

बदलाव का जरिया

मानता है

लेकिन बदलती दुनिया

कर चुकी है साबित

हर क्रांति धोखा है छलावा है

अगर उसमें इनसानी हित नहीं।

हम इन विचारों से आना है बाहर

हम आजाद हो जाना चाहते हैं

खास किस्म के वाद से

जो आदमी आदमी में

करता है फर्क

जो सुनना नहीं चाहता

कोई तर्क।

हम आजाद होना चाहते हैं

हर उस बंधन से

जो रच रखा है

हमने अपने गिर्द

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