मुख्य लिंक

                                       मुखपृष्ठ   गीत     गजल     कविताएं

Wednesday, April 30, 2014

क्या पाया क्या खोया हमने

     
आओ करें हिसाब, क्या पाया क्या खोया हमने।
    कैसे-कैसे जुल्म सहे, किस-किस पर रोया हमने।।
संबंधों के गणित के कैसे-कैसे बदले समीकरण हैं।
किस-किस ने ठगा और कहां हमारी मात हुई है।।
कहां-कहां विश्वास है टूटा, किस लमहे घात हुई है।
मानवता कब-कब रोयी, आंखों से बरसात हुई है।।
     कब-कब टूटे किसी सुहागन के सिंदूरी सपने।
     कब-कब उसको शृंगार लगे शूल से चुभने।।
कब किसी मजलूम को हमने जुल्म में पिसते पाया है।
कब इनसान ने किया ऐसा, हैवान भी तब शरमाया है।।
यहां आदमी की अब बस पैसों से होती पहचान है।
हर एक ने बेच जिया यहां, जैसे अपना ईमान है।।
     गम की कहानी अब आंखों से बन आंसू लगी बहने।
     जाने अब सीधे इंसा को कितने गम होंगे सहने।।
आदमी का जीना मुहाल है, हर सिम्त नफरतों का अंधेरा घना है।
जिस तरफ देखो उस तरफ, जैसे मुश्किलों का माहौल तना है।।
हे प्रभु क्या हो रहा है, क्या यही वह गांधी का हिंदोस्तान  है।
जहां सच्चा इंसां रो रहा , मस्ती से जी रहा वहां शैतान है।।
     आओ अगर हो सके तो हम गढ़ें फिर नये सपने।
     जिससे मुल्क में फिर चैन की बंशी लगे बजने।।
-राजेश त्रिपाठी
    

Friday, April 18, 2014

गजल



आदमी!
क्या था क्या हो गया कहिए भला ये आदमी।
सीधा-सादा था, बन गया क्यों बला आदमी।।
अब भला खुलूस है कहां, जहरभरा है आदमी।
आदमी के काम आता , है कहां वो आदमी।।
था देवता-सा, है अब हैवान-सा क्यों आदमी।
बनते-बनते क्या बना,इतना बिगड़ा आदमी।।
मोहब्बत,  वो दया, कहां भूल गया आदमी।
नेक बंदा था, स्वार्थ में फूल गया आदमी।।
प्रेम क्या है, हया क्या, भूल गया  आदमी।
था कभी फूलों के जैसा, शूल हुआ आदमी।।
प्यास ना बुझा सके, वो  कूल हुआ आदमी।
सुधारा ना जा सके, वो भूल हुआ आदमी।।
इनकी करतूतें देख के, हलकान हुआ आदमी।
गुरूर में ऐंठा, धरती का भगवान हुआ आदमी।।
बुराइयों का पुतला बना, गिर गया है आदमी।
सच कहें बिन मौत ही, मर गया है आदमी।।
है वक्त अभी खुद को जरा, संभाल ले आदमी।
वरना नहीं मिलेगा,दुनिया में सच्चा आदमी।।
-राजेश त्रिपाठी