कविता
राजेश त्रिपाठी
हमने अपने गिर्द
खड़े कर रखे हैं
जाने कितने कैदखाने
हम बंदी हैं
अपने विचारों के
आचारों के
न जाने कितने-कितने
सामाजिक विकारों के।
हमने खींच रखे हैं
कुछ तयशुदा दायरे
अपने गिर्द,
उनमें भटकते हम
भूल बैठे हैं कि
इनके पार
है अपार संसार।
उसकी नयनाभिराम सृष्टि,
उसके रंग, उसकी रौनक।
हम बस लगा कर
एक वाद का चश्मा
बस उसी से दुनिया
रहे हैं देख।
वाद का यह चश्मा
सिर्फ खास किस्म की
दुनिया लाता है सामने।
उसेक परे हम
कुछ नहीं देख पाते
या कहें देखना नहीं चाहते।
इस चश्मे का
अपना एक नजरिया है
अपना सिद्धांत है
यह क्रांति को ही
बदलाव का जरिया
मानता है
लेकिन बदलती दुनिया
कर चुकी है साबित
हर क्रांति धोखा है छलावा है
अगर उसमें इनसानी हित नहीं।
हम इन विचारों से आना है बाहर
हम आजाद हो जाना चाहते हैं
खास किस्म के वाद से
जो आदमी आदमी में
करता है फर्क
जो सुनना नहीं चाहता
कोई तर्क।
हम आजाद होना चाहते हैं
हर उस बंधन से
जो रच रखा है
हमने अपने गिर्द
Wednesday, September 15, 2010
Monday, July 26, 2010
जीने की अभिलाषा
कविता
राजेश त्रिपाठी
एक अंकुर
चीर कर
पाषाण का दिल
बढ़ रहा आकाश छूने।
जमाने के
थपेड़ों से
निडर और बेखौफ।
उसके अस्त्र हैं
दृढ़ विश्वास,
अटूट लगन
और
बड़ा होने की
उत्कट चाह।
उत्कट चाह।
इसीलिए वह
बना पाया
पत्थर में भी राह।
उसका सपना है
एक वृक्ष बनना,
आसमान को चीर
ऊंचे और ऊंचे तनना।
बनना धूप में
किसी तपते की छांह,
अपने फलों से
बुझाना
किसी के पेट की आग।
इसीलिए
जाड़ा, गरमी, बारिश
की मार सह रहा है वह
जैसे दूसरों के लिए
जीने की सीख
दे रहा है वह।
है नन्हा
पर बड़े दिलवाला,
इसीलिए बड़े सपने
देख रहा है
एक अंकुर।
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Wednesday, July 14, 2010
आज का आदमी
कविता
आज का आदमी
-राजेश त्रिपाठी
आज का आदमी
लड़ रहा है,
कदम दर कदम,
एक नयी जंग।
ताकि बचा रहे उसका वजूद,
जिंदगी के खुशनुमा रंग।
जन्म से मरण तक
बाहर से अंतस तक
बस जंग और जंग।
जिंदगी के कुरुक्षेत्र में
वह बन गया है
अभिमन्यु
जाने कितने-कितने
चक्रव्यूहों में घिरा हुआ
मजबूर और बेबस है।
उसकी मां को
किसी ने नहीं सुनाया
चक्रव्यूह भेदने का मंत्र
इसलिए वह पिट रहा है
यत्र तत्र सर्वत्र।
लुट रही है उसकी अस्मिता,
उसका स्वत्व
घुट रहे हैं अरमान।
कोई नहीं जो बढ़ाये
मदद का हाथ
बहुत लाचार-बेजार है
मेरी बांहों में खुशियों की बारात है
गीत
राजेश त्रिपाठी
आपका साथ है, चांदनी रात है।
मेरी बांहों में खुशियों की बारात है।।
मैंने सपनों में बरसों तराशा जिसे।
वही मन के मंदिर की मूरत हो तुम।।
तारीफ में अब तेरी क्या कहूं।
खूबसूरत से भी खूबसूरत हो तुम।।
रंजो गम मिट गये मिल गयी ऐसी सौगात है।
मेरी बांहों में खुशियों की सौगात है।।
तुम मिली जिंदगी जिंदगी बन गयी।
तेरी चाहत मेरी बंदगी बन गयी ।।
नजरों में तुम, नजारों में तुम हो।
महकती हुई इन बहारों में तुम हो।।
तुम मेरी कल्पना, तुम मेरी रागिनी,
बस तुम्ही से ये मेरे नगमात हैं।
मेरी बांहों में खुशियों की बारात है।।
कामनाओं ने लीं फिर से अंगडाइयां।
यूं लगा बज उठीं फिर से शहनाइयां।।
हवा मदभरी फिर लगी डोलने।
बागों में कोयल लगी बोलने।।
क्या तेरे हुश्न की ये करामात है।
मेरी बांहों में खुशियों की बारात है।।
मन हुआ बावरा यूं तेरे प्यार में।
तुम बिन भाता नहीं कुछ भी संसार में।।
तुमसे शुरू प्यार की दास्तां।
खत्म भी तुम में होती है ऐ मेहरबां।।
अब तेरे बिन नहीं चैन दिन-रात है।
मेरी बांहों में खुशियों की बारात है।।
कविता
राजेश त्रिपाठी
उसने सोचा
चलो खेलते हैं
एक अनोखा खेल
खेल राजा-प्रजा का
खेल ईनाम-सजा का।
वैसा ही
जैसे खेलते हैं बच्चे।
उसने सुना था
चाणक्य ने
राजा का खेल खेलते देख
किसी बच्चे को
बना दिया था चंद्रगुप्त मौर्य
दूर-दूर तक फैला था
जिसका शौर्य
उसने बनाया एक दल
कुछ हां-हुजूरों का
मिल गया बल
उनसे कहा,
आओ राजनीति-राजनीति खेले
सब हो गये राजी
बिछ गयीं राजनीति की बिसातें
राज करने को चाहिए था
एक देश
शायद वह भारत था
चाहें तो फिर कह सकते हैं इंडिया
या फिर हिंदुस्तान
यहीं परवान चढ़े
उस व्यक्ति के अरमान
राजनीति की सीढ़ी दर सीढ़ी
चढ़ता रहा
यानी अपने एक नयी दुनिया गढ़ता रहा।
दुनिया जहां है फरेब,
जिसने ऊपर चढ़ने को दिया कंधा
उसे धकिया ऊपर चढ़ने का
यानी शातिर नेता बने रहने की राह में
कदम दर कदम चढ़ने का।
आज वह ‘राजा’ है
हर ओर बज रहा डंका है।
अब वह आदमी को नहीं
पैसे को पहचानता है,
जिनकी मदद से आगे बढ़ा
उन्हें तो कतई नहीं जानता,
इस मुकाम पर पहुंच
वह बहुत खुश है
राजनीति का खेल
बुरा तो नहीं,
उसने सोचा।
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उसने सोचा
चलो खेलते हैं
एक अनोखा खेल
खेल राजा-प्रजा का
खेल ईनाम-सजा का।
वैसा ही
जैसे खेलते हैं बच्चे।
उसने सुना था
चाणक्य ने
राजा का खेल खेलते देख
किसी बच्चे को
बना दिया था चंद्रगुप्त मौर्य
दूर-दूर तक फैला था
जिसका शौर्य
उसने बनाया एक दल
कुछ हां-हुजूरों का
मिल गया बल
उनसे कहा,
आओ राजनीति-राजनीति खेले
सब हो गये राजी
बिछ गयीं राजनीति की बिसातें
राज करने को चाहिए था
एक देश
शायद वह भारत था
चाहें तो फिर कह सकते हैं इंडिया
या फिर हिंदुस्तान
यहीं परवान चढ़े
उस व्यक्ति के अरमान
राजनीति की सीढ़ी दर सीढ़ी
चढ़ता रहा
यानी अपने एक नयी दुनिया गढ़ता रहा।
दुनिया जहां है फरेब,
जिसने ऊपर चढ़ने को दिया कंधा
उसे धकिया ऊपर चढ़ने का
यानी शातिर नेता बने रहने की राह में
कदम दर कदम चढ़ने का।
आज वह ‘राजा’ है
हर ओर बज रहा डंका है।
अब वह आदमी को नहीं
पैसे को पहचानता है,
जिनकी मदद से आगे बढ़ा
उन्हें तो कतई नहीं जानता,
इस मुकाम पर पहुंच
वह बहुत खुश है
राजनीति का खेल
बुरा तो नहीं,
उसने सोचा।
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गज़ल
राजेश त्रिपाठी
बहुत लफ्फाजी हुई, अब बात हो कुछ काम की।
शोहरतों से घिर गये हो, फिक्र अपने नाम की।।
वक्त ऐसा ही रहेगा, सोचते हो तुम अभी।
खुशनुमा यह सुबह लगती, नहीं चिंता शाम की।।
जलती बुझती बत्तियों वाली , चढ़ो तुम गाड़ियां।
शाम होते याद आती है, छलकते जाम की।।
लोग भूखों मर रहे, तुम होटलों में लंच लो।
गैर बिल भरते रहें, चिंता नहीं है दाम की।।
काम क्या करना है, वह तो खुद बखुद है हो रहा।
तुम बड़े आका कहाते, यह घड़ी आराम की।।
रोटियां महंगी हुई हैं, लोग फाका कर रहे।
घरभरन तुमको कहें, आदत है खासो-ओ- आम की।।
लोग अच्छों को बुरा कहते हैं, यह दस्तूर है।
इसलिए तुम फिक्र करते हो, नहीं बदनाम की।।
बहुत लफ्फाजी हुई, अब बात हो कुछ काम की।
शोहरतों से घिर गये हो, फिक्र अपने नाम की।।
वक्त ऐसा ही रहेगा, सोचते हो तुम अभी।
खुशनुमा यह सुबह लगती, नहीं चिंता शाम की।।
जलती बुझती बत्तियों वाली , चढ़ो तुम गाड़ियां।
शाम होते याद आती है, छलकते जाम की।।
लोग भूखों मर रहे, तुम होटलों में लंच लो।
गैर बिल भरते रहें, चिंता नहीं है दाम की।।
काम क्या करना है, वह तो खुद बखुद है हो रहा।
तुम बड़े आका कहाते, यह घड़ी आराम की।।
रोटियां महंगी हुई हैं, लोग फाका कर रहे।
घरभरन तुमको कहें, आदत है खासो-ओ- आम की।।
लोग अच्छों को बुरा कहते हैं, यह दस्तूर है।
इसलिए तुम फिक्र करते हो, नहीं बदनाम की।।
Sunday, July 11, 2010
लिखूं गजल इक तेरे नाम
लिखूं गजल इक तेरे नाम
-राजेश त्रिपाठी
तेरी हंसी को सुबह लिखूं,
और उदासी लिखूं शाम ।
आज बहुत मन करता है,
लिखूं गजल इक तेरे नाम।।
जुल्फें ज्यों सावन की घटा,
चेहरे में पूनम सी छटा ।
नीलकंवल से तेरे नयन,
मिसरी जैसे मीठे बचन।।
गालिब की तुम्हें लिखूं गजल,
और लिखूं इक छवि अभिराम।। (लिखूं गजल---)
सुंदरता को कर दे लज्जित,
ऐसी तू शफ्फाक बदन।
तेरे कदमों की आहट से,
खिल उठे मुरझाया चमन।।
तुझे जिंदगी लिखूं मैं,
और एक खुशनुमा पयाम।। (लिखूं गजल---)
मतलब भरे जमाने में,
इक गम के अफसाने में।
तुम ही हो इक आस किरण,
बस तुम ही हो जीवन धन।।
तुमको ही दिन-रात लिखूं,
लिखूं तुम्हें ही सुबहो-शाम (लिखूं गजल---)
आती जाती सांस लिखूं,
इक मीठा अहसास लिखूं।
जीवन का पर्याय लिखूं,
और भला क्या हाय लिखूं।।
तुम्हें लिखूं दिल की धड़कन,
खुशियों की हमनाम लिखूं। (लिखूं गजल..)
-राजेश त्रिपाठी
तेरी हंसी को सुबह लिखूं,
और उदासी लिखूं शाम ।
आज बहुत मन करता है,
लिखूं गजल इक तेरे नाम।।
जुल्फें ज्यों सावन की घटा,
चेहरे में पूनम सी छटा ।
नीलकंवल से तेरे नयन,
मिसरी जैसे मीठे बचन।।
गालिब की तुम्हें लिखूं गजल,
और लिखूं इक छवि अभिराम।। (लिखूं गजल---)
सुंदरता को कर दे लज्जित,
ऐसी तू शफ्फाक बदन।
तेरे कदमों की आहट से,
खिल उठे मुरझाया चमन।।
तुझे जिंदगी लिखूं मैं,
और एक खुशनुमा पयाम।। (लिखूं गजल---)
मतलब भरे जमाने में,
इक गम के अफसाने में।
तुम ही हो इक आस किरण,
बस तुम ही हो जीवन धन।।
तुमको ही दिन-रात लिखूं,
लिखूं तुम्हें ही सुबहो-शाम (लिखूं गजल---)
आती जाती सांस लिखूं,
इक मीठा अहसास लिखूं।
जीवन का पर्याय लिखूं,
और भला क्या हाय लिखूं।।
तुम्हें लिखूं दिल की धड़कन,
खुशियों की हमनाम लिखूं। (लिखूं गजल..)
वो इक भोली-सी लड़की जो मेरे सपनों में आती है
गजल
-राजेश त्रिपाठी
हवाएं गुनगुनाती हैं, वह जब जब मुसकराती है।
घटाएं मुंह चुराती हैं, वो जब जुल्फें सजाती है।।
फिजाएं झूम जाती हैं, वो जब जब गीत गाती है।
वो इक भोली-सी लड़की जो मेरे सपनों में आती है।।
किसी मंदिर की मूरत है, किसी की कल्पना है वो।
किसी सुंदर से आंगन में सजी एक अल्पना* है वो।।
किसी की आंख की ज्योती किसी दीपक की बाती है।
वो इक भोली-सी लड़की जो मेरे सपनों में आती है।।
जिधर से वो गुजरती है, उधर हो नूर* की बारिश।
इक बांका-सा शहजादा बस उसकी भी है ख्वाहिश।।
पिता का मान है वो, मां की अनमोल थाती है।
इक भोली-सी लड़की जो मेरे सपनों में आती है।।
यही डर है कहीं सपना ये उसका टूट न जाये।
उसे जालिम जमाने का लुटेरा लूट न जाये।।
कली ये टूट न जाये अभी जो खिलखिलाती है।
वो इक भोली-सी लड़की जो मेरे सपनो में आती है।।
प्रभु से प्रार्थना है हमेशा ये मोती सलामत हो।
उससे दूर दुनिया की हरदम सारी कियामत हो।।
खुशी झूमा करे हर सूं जिधर को भी वो जाती है।
वो इक भोली-सी लड़की जो मेरे सपनो में आती है।।
*अल्पना (रंगोली)
* नूर (उजाला)
-राजेश त्रिपाठी
हवाएं गुनगुनाती हैं, वह जब जब मुसकराती है।
घटाएं मुंह चुराती हैं, वो जब जुल्फें सजाती है।।
फिजाएं झूम जाती हैं, वो जब जब गीत गाती है।
वो इक भोली-सी लड़की जो मेरे सपनों में आती है।।
किसी मंदिर की मूरत है, किसी की कल्पना है वो।
किसी सुंदर से आंगन में सजी एक अल्पना* है वो।।
किसी की आंख की ज्योती किसी दीपक की बाती है।
वो इक भोली-सी लड़की जो मेरे सपनों में आती है।।
जिधर से वो गुजरती है, उधर हो नूर* की बारिश।
इक बांका-सा शहजादा बस उसकी भी है ख्वाहिश।।
पिता का मान है वो, मां की अनमोल थाती है।
इक भोली-सी लड़की जो मेरे सपनों में आती है।।
यही डर है कहीं सपना ये उसका टूट न जाये।
उसे जालिम जमाने का लुटेरा लूट न जाये।।
कली ये टूट न जाये अभी जो खिलखिलाती है।
वो इक भोली-सी लड़की जो मेरे सपनो में आती है।।
प्रभु से प्रार्थना है हमेशा ये मोती सलामत हो।
उससे दूर दुनिया की हरदम सारी कियामत हो।।
खुशी झूमा करे हर सूं जिधर को भी वो जाती है।
वो इक भोली-सी लड़की जो मेरे सपनो में आती है।।
*अल्पना (रंगोली)
* नूर (उजाला)
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