मुख्य लिंक

                                       मुखपृष्ठ   गीत     गजल     कविताएं

Monday, September 16, 2013

आदमी आदमी से बेजार क्यों है



           राजेश त्रिपाठी
 हर तरफ मायूसी है तारी, ये हाहाकार क्यों है।
क्या हुआ आदमी आदमी से बेजार क्यों है।।
हर दिल में फरेब है, बदला व्यवहार क्यों हैं।
प्यार भी आज का बन गया व्यापार क्यों है।।

कोई खा-खा के मर रहा कोई फांके कर रहा।
 क्या यही गांधी के सपनों का हिंदुस्तान है।
हर ओर धुआं उठ रहा, घर में बागी पल रहे।
हर तरफ मतलबपरस्ती, बिक गया ईमान है।।

मुल्क के जो रहनुमा हैं, हमारे हुक्मरान हैं।
उनके लिए तो चारागाह सारा हिंदु्स्तान है।।
जो जहां चाहता है, पेट भर वह चर रहा।
मुफलिसी से जबकि पिस रहा इनसान है।।

आप गर बेहतरी का ख्वाब पाले हैं कोई।
तो यही कहेंगे, आप बेहद बदगुमान हैं।।
ये वो बादल हैं जो गरजते हैं बरसते नहीं।
बेच कर ये खा गये अपना सभी ईमान हैं।।

कोई सुभाष, कोई पटेल न कोई गांधी आयेगा।
अब तो भारत का कोई लाल ही इसे बचायेगा।।
जो जहां है बस वहीं से छेड़ दीजिए सत्याग्रह।
आपके प्यारे मुल्क को आपका इंतजार है।

नाउम्मीदी से ही राहे उम्मीद नजर आयेगी।
एक न एक दिन बदली दुख की हट जायेगी।।
फिर होगा हमारा मुल्क सारे जहां से अच्छा।
जिससे हम करते दिलों जां से ज्यादा प्यार है।।

Wednesday, September 4, 2013

लग गयी मुल्क को किसकी नजर


राजेश त्रिपाठी
जाने कैसा ये दौरे सियासत है।
हर शख्स दर्द की इबारत है।।
हर सिम्त घात में हैं राहजन।
या खुदा ये कैसी आफत है।।
अब कौन करे भला जिक्रे महबूब।
मुश्किलों की ही जब इनायत है।
किस तरह बचाये कोई खुद को।
राह में जब बिछी अलामत है।।
महफूज रखे है तो मां की दुआ।
वरना लम्हा-लम्हा एक सामत है।।
लग गयी मुल्क को किसकी नजर।
न चैन है न खुशी न कहीं राहत है।।
या खुदा अब कोई तो राह पैदा कर।
यहां सियासत भी अब तिजारत है।।

Thursday, August 22, 2013

जुल्म का यह दौर क्यों भला जाता नहीं



क्या कहें, कैसे कहें अब सहा जाता नहीं।
जुल्म का यह दौर क्यों भला जाता नहीं।।
अंधेरों की है हुकूमत मानो उजाले खो गये।
फरियाद किससे करें, हुक्मरां तो सो गये।।

हमने सोचा था नहीं ऐसा भी दिन आयेगा।
आदमी जब खुद आदमी से भी डर जायेगा।।
कोई मस्त है तो कोई जिंदगी से त्रस्त है।
न्याय का सूरज जैसे हो गया अस्त है।।


लूट,रेप,हत्या का जहां चल रहा राज है।
क्या ये गांधी का वह पावन स्वराज है।।
निर्भया हैं रो रही, हम तो शर्मसार हैं।
हर तरफ अब मचा सिर्फ हाहाकार है।।


राज दबंगों का सच्चा इंसां हैरान है।
ये प्रभु क्या यही मेरा हिंदुस्तान है।।
जिनको सिर्फ कुर्सियों से प्यार है।
उनसे उम्मीद रखना तो बेकार है।।

जिनको मुल्क से सच्चा प्यार है।
जाग जायें ये वक्त की पुकार है।।
भारतवर्ष में न्याय का उत्कर्ष हो।
होठों में मुसकान दिल में हर्ष हो।।

Saturday, January 12, 2013


क्या जमाना आ गया
                  -राजेश त्रिपाठी
आदमी से आदमी घबरा रहा, क्या जमाना आ गया।
गांव हों या शहर, कोहराम है, क्या जमाना आ गया ।।
हर तरफ जुल्मो-सितम की मारी आधी आबादी है।
आप ही कहिए भला क्या यही हासिले आजादी है।।
कुफ्र है, कहर है, कराह है औ चार सूं जुल्मशाही है।
हे मेरे भगवान मेरे मुल्क में क्यों आलमे तबाही है।।
अब तो धीरज भी डगमगा रहा, क्या जमाना आ गया।
गांव हों या शहर, कोहराम है, क्या जमाना आ गया ।।
दुस्शासनों का राज ऐसा जहां लुट रहीं पांचालियां।
जो हैं रक्षक सुस्त हैं या कर रहे लनतरानियां।।
जाग उट्ठा देश सारा पर लगता सो रहा निजाम है।
बस बहस-मुबाहिसों में गुजरते उनके दिन तमाम हैं।।
हर ओर इक अजाब है, क्या जमाना आ गया।
गांव हों या शहर, कोहराम है, क्या जमाना आ गया ।।
कुछ लोग है जिनको फकत कुर्सियों की फिक्र है।
इनके लिए बरबादिए वक्त, आम इंसा का जिक्र है।।
इनकी मसनद सलामत रहे, मुल्क जाये खाक में।
चाहे हो जितनी तबाही, बट्टा न आये धाक में ।।
आदमी शैतान होता जा रहा क्या जमाना आ गया।
गांव हों या शहर, कोहराम है, क्या जमाना आ गया ।।
हमने चाही थी फकत अमनो-चैन की जिंदगी।
पर सियासत में भरी है इस कदर से गंदगी।।
आदमी को लगता है जैसे खा गयी हैं कुर्सियां।
 आदमी को अब तो मानो आदमी खाने लगा है।
हर तरफ है तारी नाइंसाफी, क्या जमाना आ गया।
गांव हों या शहर, कोहराम है, क्या जमाना आ गया ।।
एक पिद्दी-सा देश हमको इस कदर आंखे दिखा रहा।
जैसे कि सारा हिंदुस्तान बस उसका दिया ही खा रहा।।
हम बढ़ाते दोस्ती में फूल वह दुश्मनी जतला रहा है।
हमने उसको दोस्त माना, वह पैंतरे दिखला रहा है।
न जाने हमारी क्या है लाचारी, क्या जमाना आ गया।
गांव हों या शहर, कोहराम है, क्या जमाना आ गया ।।
अब सही जाती नहीं जो रीति सियासतादान हैं अपना रहे।
हम तो आजिज हैं गमों से ये हमे आजकल बहला रहे।।
कितनी चालें, कितने शिगूफे और कितने सब्ज खवाब।
बहुत देखे और भोगे माफ कीजै अब आला जनबा।।
 हर तरफ शिकायतों का दौर है, क्या जमाना आ गया।
गांव हों या शहर, कोहराम है, क्या जमाना आ गया ।।
मेरे वतन के भाइयों गर आपको हिंदोस्तां से प्यार है।
मुल्क के बारे में  अब कुछ  नया सोचने की दरकार है।।
खामोशियों को तोड़िये अब वक्त आया है इंकलाब  का।
सवालों से घिरी रहीं सदियां अब वक्त आया जवाब का।।
आस भी हो रही निरास, क्या जमाना आ गया।
गांव हों या शहर, कोहराम है, क्या जमाना आ गया ।।