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Monday, July 26, 2010

जीने की अभिलाषा

कविता

राजेश त्रिपाठी

एक अंकुर

चीर कर

पाषाण का दिल

बढ़ रहा आकाश छूने।

जमाने के

थपेड़ों से

निडर और बेखौफ।

उसके अस्त्र हैं

दृढ़ विश्वास,

अटूट लगन

और

बड़ा होने की

उत्कट चाह।
इसीलिए वह

बना पाया

पत्थर में भी राह।

उसका सपना है

एक वृक्ष बनना,

आसमान को चीर

ऊंचे और ऊंचे तनना।

बनना धूप में

किसी तपते की छांह,

अपने फलों से

बुझाना

किसी के पेट की आग।

इसीलिए

जाड़ा, गरमी, बारिश

की मार सह रहा है वह

जैसे दूसरों के लिए

जीने की सीख

दे रहा है वह।

है नन्हा

पर बड़े दिलवाला,

इसीलिए बड़े सपने

देख रहा है

एक अंकुर।

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1 comment:

  1. एक अंकुर और इतने सपने!
    यूँ चट्टानों का सीना चीरने की क्षमता रखने वाले और मुलायम,बारीक जड़ें रखने वाले ही जमीं से गहराई से जुड जाते है. अंकुर प्रान्कूर इसी के प्रतीक है.जिन्हें आपने सटीक और संतुलित भाषा में अभिव्यक्त किया है.आपमें भी अच्छी रचना लिखने की क्षमता है इसमें कोई शक नही.
    क्या पुराने प्रतीकों और प्रतिबिम्बों को छोड़ कर कुछ नया पढ़ने को मिलेगा मुझे? आप कर सकते हैं. प्रयास कीजिये.
    ढेरों शुभ कामनाएं.

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